Thursday, July 3, 2008

...क्या अब पत्रकारिता बची है

आरुषि हत्याकांड

]नौकर ने की चौदह वर्षीय बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या,
बाप ही निकला आरुषि का हत्यारा,
अवैध संबंध बने हत्या का कारण,
पुलिस को नहीं मिल रही सफलता
कृष्णा संदेह के घेरे मेंराजकुमार संदेह के घेरे
मेंटीशर्ट पर मिले खून के घब्बे, टीशर्ट उगलेगी हत्याकांड का सच...और न जाने क्या क्या हम बात कर रहे हैं आरु।षि हत्याकांड की . उस दौरान कुछ ऐसे शब्दों में ही मीडिया में हत्याकांड से जुड़ी खबरों का प्रसार हुआ.
ये सब पत्रकारों की जुबानी नहीं था. ये आवाजें कभी पुलिस की थी तो कभी सीबीआई की.
इस सब को कहने का तात्पर्य ये है कि यारों अपनी पत्रकार बिरादरी क्या अब पुलिस के बोल बोलने लगी है. ऐसा क्या हो गया है कि टीवी चैनल व अखबारी दुनिया के पत्रकार अपनी समझ को परे रख पुलिस के बयानों पर आधारित खबरों को चलाते व छापते रहे. पत्रकारों की अपनी सुध तो जाने कहां चली गई है। चैनलों में बैठे बड़े बड़े दिग्गज क्यों इतने दिनों तक पुलिस के बयानों के आधार पर अपनी फुटेज खराब करते रहे। अखबारी दुनिया के लोग स्याही खराब करते रहे, कोरी बकवास में। पत्रकार तो मानों हनुमान जी की तरह अपना वजूद ही नहीं पहचान पा रहे हैं।कभी याद दिलाओ तो कुछ कर गुजरते हैं बाकि तो अब कंपनियों व नेताओं के प्रवक्ता बन कर रह गए हैं। आरुषि हत्याकांड को ही लें। आखिर क्यों किसी पत्रकार ने पहले दिन ही छत पर जाकर घटनास्थल का बारीकी से जायजा नहीं लिया। काला चश्मा लगाए पत्रकारों को आखिर क्यों सीड़ी पर लगे खून के धब्बे नजर नहीं आए। आखिर क्यों ऐसा हुआ कि किसी छोटी सी हरकत को मीडिया ने बेकिंग स्टोरी बता बता कर घंटों टीआपी का खेल खेला, लेकिन अपनी समझ से आरोपियों पर व घटना पर पैनी निगाह नहीं डाली, क्यों सबूत मिटाने के लिए आरोपियों को इतना समय दिया. आईडी मेरठ जोन गुरर्दशन सिंह ने कहा कि बाप ने मारा है तो उनके साथ हो लिए. और सीबीआई ने कृष्णा व राजकुमार पर संदेह जताया तो उनके आरोपी होने का हल्ला मचा दिया. सही में ऐसा घटनाकऱ दुखद है समाज के लिए और पत्रकारिता के लिए भी. मैं इस ब्लाग के माध्यम से यह पूछना चाहूंगा कि क्या सबसे तेज खबर पहुंचाने में हम पत्रकारिता के मायने तो नहीं भूल रहे । क्या हम पत्रकारिता कर भी रहे हैं या बस एक धंधा-या बस नौकरी?