Wednesday, October 1, 2008

एक दिन खुशी मुझसे बोली,

एक दिन खुशी मुझसे बोली,

तेरा तन्हाई से क्या नाता है

तू घर मेरे क्यों नहीं आता है

मेरे घर के आंगन में भी झूम

जीवन के महकते फूलों को भी चूम

क्यों रहता है तू इतना दूर

कौन करता है तुझे इसके लिए मजबूर

मैं बोला,

खुशी तेरी चाह कौन नहीं करता़

तुझे पाने को कौन नहीं मरता

लेकिन मेरी तक्दीर का तुझसे है बैर पुराना

एक अदद हंसी हंसे मुझे तो हो गया जमाना

अब तो तन्हाई संग उठ, तन्हाई संग सो जाता हूं

और तेरे घर आने की चाहत में अक्सर रो जाता हूं

2 comments:

वीनस केसरी said...

अब तो तन्हाई संग उठ, तन्हाई संग सो जाता हूं और तेरे घर आने की चाहत में अक्सर रो जाता हूं

एक अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद
गजल की क्लास चल रही है आप भी शिरकत कीजिये www.subeerin.blogspot.com

वीनस केसरी

anurag said...

acchi hai, jazbaat bayaan kar diye hai lekin chahat jab lambi ho jaati hai toh intezaar ban jaati hai aur intezaar lambi ho jaaye toh aise kavita khud -b -khud likh jaati hai.